Wednesday, June 6, 2018

गुरुओं ने कहा था "पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत..."

लेकिन प्रकृति का क्या हाल कर दिया हमने---

पंजाब के पानी में भी घोली जा चुकी है प्रदुषण की ज़हर
लुधियाना: 6 जून, 2018: कार्तिका सिंह 

 कभी तेज धुप तो कभी झमाझम बारिश। कभी कंपकंपाती सर्दी और चारो तरफ धुंध तो अगले ही पल आसमान साफ़...... यह चमत्कार नहीं; कोप है प्रकृति का।  विकास के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़  सालों से होती रही है।  विकास कितना हुआ यह देखने की बात है पर इस दौरान प्रकृति के साथ हमने क्या किया-----यह सोचने की बात है।  

आज  न शुद्ध पानी है, न हवा और न ही शांत स्वच्छ वातावरण। एक ऐसे देश में जहाँ गंगा यमुना को माता माना जाता है और यहाँ की नदी में कलकल बहता जल आस्था का विषय है।  उस देश में गंगा नदी की हालत हमने ऐसी कर दी है, की पीना या नहाना तो दूर उस पानी को देखना भी अब बुरा लगता है।  
                                                                 घर आंगन में तुलसी और पीपल के पौधों को पूजने वाले हम लोगो ने बड़ी बड़ी इमारतो को खड़ा करने के लिए पेड़ों को सरे आम कटवा कर अपने रस्ते से हटवा दिया।  लगातार अलग अलग कारणों से हम पेड़ काटते रहे. इसके लिए हम नए नए बहाने भी ढूँढ़ते रहे। यह एक ऐसा पाप था--एक ऐसा अपराध जिसकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग का स्तर बड़ा।  इससे भौगोलिक और पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हो गया।  स्थिति भयानक होने के बावजूद हम लगातार अपनी सुविधा और हित के लिए पेडों को काट रहे है।  पेड़ कह रहा है--- "पेड़ हूँ मैं, जानता हूँ प्रकृति के नियम को, काटे हो जब मुझको, तो काटते हो तुम स्वयं को।" हमने कभी पेडों की या नदियों की चेतावनी नहीं सुनी। हमने अपनी अंतर् आत्मा से उठीं ऐसी सभी आवाज़ों को भी अनसुना कर दिया। गुरु ग्रन्थ साहिब में लिखा है ------" पवन गुरु , पानी पिता, माता धरत महत "  अर्थात हवा को गुरु , पानी को पिता और धरती को माँ का दर्जा दिया गया है।  लेकिन कितने लोगों ने इसे अपने जीवन में उतारा?
             हम अधिक विकास की रफ़्तार के चलते तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे है।  पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों और उन संसाधनों के दोहन में अत्यधिक अंतर है।  अत्यधिक दोहन के चलते शीघ्र ही प्राकृतिक संसाधनों के भण्डार समाप्ति के कगार पर पहुँच जायेगा। लगातार बढ़ती गाडियों की संख्या से वायु प्रदूषण बढ़ गया है।  सांस लेना मुश्किल हो गया है।  वन्य जीवो का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है।  बार - बार आग लगने के कारण छोटे वनस्पतियों की कई प्रजातियाँ ही समाप्त  गयी है।  खेतो में भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरको के पर्योग से भूमि बंजर होती जा रहगी है।  परंपरागत खादों का उपयोग लगभग बांध हो गया है।  भू - जल स्तर तेजी से गिरता जा रहा है भूमि में हो रहे बोर-पम्प के कारण भूगार्भिक जल का स्तर तेजी से घटता जा रहा है।  
                       इस समस्या को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने  1972 में स्टोकहोम में आयोजित एक कांफ्रेंस  द्वारा विशव प्रयावरण दिवस का सुझाव संसार के सन्मुख प्रस्तुत किया।  वर्ष 1973 में 5 जून को विशव प्रयावरण दिवस मनाया गया।  तब से ले कर हर वर्ष इसी दिन पुरे संसार में विशव प्रर्यावरण दिवस मनाया जाता है।  अब जब पुरी दुनिया में इस दिन को मनाया जाने लगा है, तो -- हमारे लिए ये सोचने की बात है , कि आखिर हमें शुद्ध पानी, हवा और शांत वातावरण को नुक्सान पहुचाकर विकास चाहिए या नहीं।  क्या हमें संयुक्त राष्ट्र के इस साल के स्लोगन " बीट प्लास्टिक पाल्यूशन " थीम पर सोचने और अमल करने की ज़रुरत है या नहीं।  और काबिल - ऐ - ज़िक्र है कि हमारा देश इस साल विशव पर्यावरण दिवस की मेजबानी कर रहा है। 
                                                            पर हर बार की तरह 5 जून , प्रयावरण दिवस इस बार भी गुजर गया।  मना लिया होगा , अच्छे से , है न----- पर गेती , फावड़े , संरक्षण की चिंताए, प्रयावरण को संभालने की फ़िक्र तो नहीं रख दी न ?---- कि अब अगले साल तक तो फुर्सत मिली।   भूल जाईये ! अब ये फुर्सत , आराम हमारे हिस्से में नहीं रहा।  जो हालत हमने दुनिया की बना ली है , उसमे कई दशको तक दुनिया का ख्याल रखे जाने की ज़रुरत है।  इक्का - दुक्का परवाह से अब काम न चलेगा।  फिर संग आने के लिए एक 5 जून काफी न होगा।  इमारते खड़ी हो रही है , नदिया सूख रही है।  खेत घटते जा रहे रहे है , पेड़ नज़र से परे हो रहे है।  कचरा ज़मा हो रहा है , छांटा -बांटा भी जा रहा है , पर कम कहाँ हो रहा है ? सीमेंट की हमारी बसाहटो में , प्लास्टिक की सजावट हो रही है , जो प्रकृति का सबसे बड़ा दुश्मन है।  
                 हम इन्सान पृथ्वी के दुसरे प्राणियों की तुलना में खुद को बहुत प्रगतिसंपन , विचारशील और संवेदनशील मानते है।  वो जो पिछरे हुए प्राणी है , वह प्रकृति को संभाले हुए है , हैरत होती है न।  जिसे हमने तरक्की समझा , उसमे कुदरत को शामिल ही नहीं किया।  जब तक कुदरत के साथ थे ,खुश थे -- अब पराजित हैं , बीमार हैं।  करीब 200 बर्षों तक हमने जो सीखा, विकास के नए नए प्रतिमान गढ़ लिए लेकिन यह सभी प्रतिमान हमारे नहीं थे--विदेशों के थे।  अब अगले एक दशक में उसकी परीक्षा देनी है।  पहाड़ों को काटने , सागर का सीना चीरने, नदियों के परवाह पर नियंत्रण रखने और हवाओ के रुख को मोड़ देने का दमखम रखने वाले--- इस प्रथ्वी के सबसे समझदार प्राणी, हम इंसानों को अपने ग्रह को प्लास्टिक में डूबने , सूखे से तिड़कने  और भूख से तड़पने से रोकने की चुनौती का सामना करना होगा।  हर इन्सान को प्रयावरण का मित्र बनना होगा।  जीवन की चाह में प्रकृति की हत्या को रोकना होगा।   

       इसी बीच केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री डॉ. हर्ष वर्धन ने कहा है कि प्रदूषण और पर्यावरण संबंधित विषयों पर कानून और अधिनियम पारित किए जा चुके हैं और अब लोगों को इस पर अमल करना है। विश्‍व पर्यावरण दिवस समारोह के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए डॉ. हर्ष वर्धन ने आज यहां कहा कि पर्यावरण की देखभाल करना भारत की समृद्ध विरासत रही है। उद्घाटन सत्र नेचुरल केपिटल ऑफ इंडिया विषय पर आयोजित किया गया था। उन्‍होंने आगे कहा कि हमारे देश में भूमि, पेड़ और नदियों को दिव्‍य आशीर्वाद के हिस्‍से के रूप में समझा जाता है और इन्‍हें प्राकृतिक उपहार के रूप में देखा जाता है, जिन्‍हें संरक्षित और पोषित करने की आवश्‍यकता है। मंत्री महोदय ने कहा कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को पर्यावरण के लिए कार्य करने के संदर्भ में प्रेरित किया जाना चाहिए और व्‍यक्‍तियों के छोटे योगदानों से एक वृहद कार्य पूरा किया जा सकता है।

ग्रीन गुड डीड्स पहल के सकारात्‍मक प्रभाव का वर्णन करते हुए डॉ. वर्धन ने कहा कि इस पहल को पूरे विश्‍व स्‍तर पर लागू किया जाना चाहिए। इस पहल को ब्रिक्‍स और अंतर्राष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालयों द्वारा सराहना मिली है।

संयुक्‍त राष्‍ट्र पर्यावरण के कार्यकारी निदेशक श्री एरिक सोल्‍हेम ने अपने संबोधन में ग्रीन गुड डीड्स के प्रति डॉ. हर्ष वर्धन के दृष्‍टिकोण को सराहते हुए कहा कि पर्यावरण पर परिचर्चा घर-घर में होनी चाहिए।    

                                                   

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