Friday, May 31, 2013

मन का खेल

बहाने पर बनाता है बहाना बना कर छोड़ेगा मुझको दीवाना 
गर्मी ने जान निकाल रखी थी। हर रोज़ पढने के लिए जाना किसी पहाड़ से कम न लगता। रोज़ गुस्सा आता कि पता नहीं कब होंगी स्कूल में गर्मी की छुट्टियाँ। घर बदलने के बाद उसी पुराने स्कूल से मोह भी नहीं छूट रहा था और इतनी दूर हर रोज़ जाने के लिए न आसानी से रिक्शा मिलता न ही कुछ और। ऐसी हालत में बार बार यही लगता कि गर्मियों की छुट्टियाँ होंगीं तो सब ठीक हो जायेगा। मन में तरह तरह के कार्यक्रम बन रहे थे कि अबकी बार कहाँ जाना है? मां डल्होजी जाने की बात कर रही थी और पापा धर्मशाला जाने की बात करते रहते थे। सहेलियाँ शिमला जाने की बातें करतीं तो मन झट से ऊंचे बर्फीले पहाड़ों के नजारों में खो जाता। बड़ी बहन मुम्बई जाने की बात करती तो नानी मां वैष्णो देवी जाने का उपदेश देती तरह तरह के ख्याल मन में चलते रहते साथ ही चलती ख्यालों में एक यात्रा। आखिर कर छुट्टियाँ भी हो गयी। मन कितनी तेज़ी से रंग बदलता है इसका अहसास आज फिर हुआ। पहली छुट्टी थी मन में इसे मजेदार बनाने की स्कीमे सोचना अच्छा लगता था कि सुबह हुयी---दोपहर हुयी--फिर शाम और फिर रात। पहली बार महसूस हुआ कि स्कूल जाना कितना अच्छा होता है। अब समझ नहीं आता की बोरियत से भरा यह महीना कैसे निकलेगा। साथ ही पता चला एक रहस्य कि मन बहुत तेज़ी से भागता है किसी नए रस्ते पर--किसी नई मंजिल की तरफ। जो पास होता है उसे भूल जाता है और जो  होता है भागता है। दिल करता है की इस बार की छुट्टियाँ मन के इस विज्ञानं को समझने में ही लगाई जायें। इस लिए जो जो महसूस होता रहेगा वह मैं आपको बताती रहूंगी। इसके साथ ही चलेगा तन को पूरी तरह तंदरुस्त और मजबूत बनाने का सिलसिला। इसके साथ ही होगा मन जीते जगजीत का थोडा सा अभियास और। आपको कैसी लगी मेरी छुट्टियाँ  बताने की योजना। आपकी योजना क्या है? उचित लगे तो अवश्य बताना! --कार्तिका