Monday, September 11, 2017

जीना इसी का नाम है.....

पीएयू के सुसाईड प्रिवेंशन आयोजन ने सिखाये ज़िंदगी के असली गुर 
लुधियाना: 16 सितंबर 2017: (कार्तिका सिंह)::
मन की दुनिया अजीब दुनिया है;
रंग कितने ही यह बदलती है। 
यह पंक्तियाँ इन दिनों की अख़बार में छपी खबरें देख कर पहले मन में उठीं और फिर जुबां पर आयी। कहीं बेटा बाप की हत्या कर रहा है और कहीं कोई बेटा मां को कत्ल कर रहा है। पैसे की पूजा करने वाले पूंजीवाद में यही सब हो सकता है। रिश्तों और जज़्बातों की कदर पूँजी प्रधान युग में कहां! 
हां वहीँ कभी कभी अच्छीे ख़बरें भी आती हैं। वो लोग भी रिश्ते बनाते और निभाते हैं जिनका किसी से खून का कोई रिश्ता नहीं होता। दुनिया के इन बदलते चेहरों को देख कर ही अहसास होता है मन की शक्ति का। मन को वश में किया तो पैरों तले ज़माना और अगर मन के पीछे हो लिए तो कुछेक हालतों को छोड़ कर ज़माने के पैरों तले हम। जब भी किसी समाचार पत्र में किसी की आत्महत्या की खबर छपी नज़र आती तो मन विचलित हो उठता। किसी का मन किसी का दिमाग किसी को मौत की राह पर कैसे ले जाता है। कदम कदम पर फैले शोषण के जाल ने ऐसे बहुत से हालात बनाये हैं। ज़रा सोचो उस मानसिक स्थिति को जब कोई मरने का फैसला करता है। ज़रा सोचो कैसे कोई खुद की जान ले सकता है? आखिर क्यों महसूस होता है इतना गम, इतना दर्द जो जान ले कर हो हटता है।  कारण बाहरी भी हैं लेकिन मन की भूमिका बहुत बड़ी होती है। तभी कहा जाता है शायद---मन के जीते जीत है--मन के हारे हार। 
आत्म हत्यायों की खबरों से दिल और दिमाग दोनों परेशान थे। उदासी बढ़ रही थी। समझ नहीं आ रही थी कि किसी को आत्महत्या से कैसे रोका जा सकता है। इसी उधेड़बुन में पता चला कि पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी एक प्रतियोगिता करवा रही है कि आत्म हत्यायों को कैसे रोका जाये? इसकी जानकारी मिलने पर मन में ख़ुशी की एक लहर उठी। काव्य रचना की मन में छुपी भूली बिसरी चाहत सक्रिय हुयी और एक पंजाबी काव्य रचना लिखी गयी।
उन दिनों पंचकूला में डेरा सच्चा सौदा के विवाद को लेकर हिंसक हालात  बने हुए थे। इंटरनेट बंद था। इसलिए लगा कि मेरा तो इस प्रतियोगिता में भाग लेना ही मुश्किल। कार्यालय में छुट्टी थी और इंटरनेट बंद। बहुत ही बेबसी की हालत बनी हुई थी। तभी एक अच्छी खबर आई। ज़रा सा हालात ठीक होते ही पीएयू ने इस प्रतियोगिता की अंतिम तारीख बढ़ाने का ऐलान कर दिया। कालेज के प्रोफेसरों ने होंसला दिया। बस मुझे तो जान में जान आयी। लगा मुझे अब अवश्य ही भाग लेना चाहिए। बहुत बार मन को बदला भी। फिर दिल के किसी कोने से आवाज़ आती शायद कंसोलेशन या एपरीसेशन पुरस्कार ही मिल जाये। बस एक दम से वो पंजाबी रचना प्रतियोगिता में भेज दी। अब बेसब्री से इंतज़ार था प्रतियोगिता के परिणाम का। 
मुझे याद है कि जिस दिन यह परिणाम आया उस दिन भी मेरे पापा हिमाचल में थे। मुझ से रहा नहीं गया और व्हाटसप पर अपनी ख़ुशी पापा को बताई।  पापा भी बहुत खुश हुए। 
जिस दिन इन परिणामों की घोषणा हुयी वो दिन तो मेरे लिए अविस्मरणीय ही बन गया। कालेज की मेरी प्रोफेसर और प्रिंसिपल दोनों ही मुझे आशीर्वाद देने के लिए विशेष तौर पर आये हुए थे। इससे मेरी ख़ुशी भी चौगुनी हुई और गर्व भी। उसी कार्यक्रम में जब मेरी कविता को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से स्टेज पर पढ़ा भी गया और स्क्रीन पर दिखाया भी गया तो मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुयी।  इससे ज़्यादा ख़ुशी उस जानकारी की मिली जो शायद मुझे वहीँ पर मिल ही नहीं सकती थी। पत्रकारिता विभाग के डाक्टर सरबजीत सिंह और होम साइंस विभाग की मैडम जतिंदर कौर गुलाटी ने तो कमाल की बातें बतायीं जिनमें कमाल का जादू था। ऐसा जादू जो आत्महत्या के लिए जा रहे इंसान को वापिस ज़िंदगी के जोश में ले आये। 
इसी तरह जानमाने शायर पद्मश्री डाक्टर सुरजीत पात्र साहिब ने बहुत ही सच्चा सुच्चा और वैज्ञानिक तथ्य बताया कि  जैसे कोई भी खतरनाक ज़हर अगर बहुत से पानी में मिला दिया जाए तो उसकी मार्क क्षमता तकरीबन समाप्त जैसी ही हो जाती है। उन्होंने समझाया कि इसी तरह अगर हम अपने दर्द को ही सबसे बड़ा दर्द समझ कर गले लगाएंगे तो वो खतरनाक ज़हर ही बन जायेगा जो ख़ुदकुशी की तरफ जाता है। लेकिन अगर दुनिया भर के गम को या दूसरों के गम को भी अपने ही गम इन शामिल कर लिया जाये तो अचानक ही अपना गम का सागर बहुत छोटी सी बूंद जैसा बन जाता है। उसकी मार्कक्षमता समाप्त हो जाती है। पात्र साहिब के इस हिसाब किताब को सुन कर याद आया वह गीत----
                                                              किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, 
                                                              किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
                                                              किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार-----
                                                              जीना इसी का नाम है-----
तब से मेरी अंतर्मन की जो आंख केवल अपना ही दर्द देख रही थी वही आंख अब दूसरों के दर्द को भी देखने लगी। कुछ ही दिनों में मुझे अपना दर्द--अपना गम जो बहुत बड़ा लगता था अब एक तरह से भूल जैसा ही गया था।
उसी कार्यक्रम में डाक्टर सुखपाल साहिब का पेपर भी पढ़ा गया था। कमाल की जानकारी दी गयी इस खोज पत्र में। खुदकुशियों का इतना विस्तृत विवरण शायद किसी अख़बार में नहीं आया। खुदकुशियों के इस अभियान से जुड़ कर ही पता चला कि  वास्तव में मामला है क्या? मैं कोशिश करूंगी कि  इस पर जल्द ही कोई नयी पोस्ट लिखी जाये। फिलहाल इतना ही कि अपना सुःख  और दूसरों का दुःख बाटना आ जाये तभी पता चलता है-- जीना इसी का नाम है...