वह अंतरंग मुलाकात--जो अब भी जारी है
कभी लिखा था कि.....
मिलती हैं जो ठोकरे राह ऐ ज़िन्दगी में,
कभी कभी उन्हें खा कर रुक जाना ही बेहतर है.
न जाने रचियता का,
किस और मुड़ने का इशारा हो..!
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संजीत के साथ कुछ पल कैमरे के सामने |
अब इन्ही पंक्तियों के क़दमों पे चलते हुए, रुक गयी हु, तो मन पीछे भाग रहा है..... क्या हुआ, क्या नहीं होना चाहिए था, ऐसा क्यों हुआ, वैसा क्यों हुआ वगैरा वगैरा। कौन लोग आये ज़िन्दगी, क्यों आये, कई क्यों चले गए। सब कुछ जैसे इस आराम के क्षण में ही दिलो-दिमाग में आना था। पर करू भी तो क्या... ये दिल है भी अपना ही....... रोके नहीं रुकता। लोगो के बारे में सोचते हुए..... कब बात औरतों की ओर चली गयी पता ही नहीं लगा। महिला दिवस की एक दिन की मुबारक बात, सोचने को मज़बूर करती है कि क्या बाकी बचे 364 दिन औरत को लूटने के लिए ही बने है? क्यों ये समाज कभी औरत को निचे गिरा देता तो कभी भगवान से भी ऊपर उठा देता है। ये समाज, ये लोग क्यों नहीं सोचते की ज़िन्दगी की गाड़ी औरत और मर्द नामक दो पहियों पर ही चल सकती है। खैर ये तो थे मेरे विचार। लेकिन जब मैं महिला सशक्तिकरण के बारे में सोचती हू, तो अनगिनत उदहारण मेरे पलकों में समां जाते है। की क्या क्या किया है औरतों ने। घूरती हुई नज़रों से बचते हुए, समाज की जंजीरों को तोड़ते हुए, पर भी अपने अंदर की ममता को संभाले हुए, कभी मैं भी कभी इस तरह की कोई उदहारण बन पायूँगी ? पता नहीं, लेकिन ऐसी एक उद्धरण को मैं हर रोज़ अपनी आँखों के सामने देखती हूँ। एक लड़की कितनी मज़बूत हो सकती हैं..,.. इस की ज़िंदा मिसाल से मैं हर रोज़ बात करती हूँ..... खाना कहती हूँ, हंसती-बोलती हूँ। सोच कर आश्चर्य होता है , लेकिन ये सच है। हमारे कॉलेज की बहुत ही अच्छी, होनहार, होंसले वाली, कभी हार न मानने वाली, हर कदम पर मुसीबत से टक्कर लेने वाली एक लड़की संजीत कौर। वैसे है तो मेरी प्रिय सखी, लेकिन उस के कामों ने उसे बहुत ऊँचा उठा दिया हैं ..लेकिन कदम अब भी ज़मीन पर ही हैं। आसमानों तक पहुंच करके भी उसने ज़मीन नहीं छोड़ी। राजपथ पर राष्ट्रपति सहित अनेक मशहूर लोगो से मिलने के बावजूद भी ..... हमसे वो उसी तरह मिलती है जिस तरह पहले मिलती थी..... उतने ही प्यार और पागलपन के साथ। उसकी तारीफ में मैं क्या कहूं....... लेकिन एक गीत मेरे ज़हन में आ रहा है
...फिल्म अकीरा का गीत..... उस गीत की चंद लाइनें उसे समर्पित ज़रूर कर सकती हूँ।
आगे आगे रस्ते नए,
नए मोड़ सारे ,
न तू कभी घबरा रे,
चले जा अकेले तू अपने ही दम पे,
तेरा हमसफ़र हौंसला रे.........
रास्ते फ़िलहाल एक से लगते हैं लेकिन कब अलग हो जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। कब मंज़िलें बदल जाएं-कुछ कहा नहीं जा सकता। ज़िंदगी के संघर्षों में बहुत कुछ बदल सकता है। शायद उस बदलाव को रोक पाना सम्भव भी नहीं होता। कई बार ये बदलाव इतने प्राकृतिक होते हैं कि इन्हें रोकना चाहिए भी नहीं। इस हकीकत के बावजूद मन में एक आकांक्षा बनी रहती है कि हमारा दिल अगर किसी मोड़ पर आ कर न भी मिले तो भी हमारा सुर तो मिला ही रहे। उसकी मक्की की रोटी, सरसों का साग और उसकी मम्मी का प्यार मेरे लिए हमेशां ही मन में एक विशेष स्थान पर रहेगा। --कार्तिका सिंह