Sunday, December 8, 2019

बहुत कुछ देखा है इस चौंक ने लुधियाना में

पविलियन चौंक ही कभी सेशन चौक हुआ करता था 
लुधियाना: 8 दिसंबर 2019: (कार्तिका सिंह// मन की दुनिया-मन के रंग)::
यह लिखा है आई लव लुधियाना। स्थान है पविलियन माल। इसी स्थान पर कभी अलुमिनियम का एक बैंच लगा होता था। थके मंडे लोग कुछ पल के लिए यहां बैठ जाते। मैन भी यहां कई बार बैठ कर देखा। मकसद होता था अतीत के दृश्य को मन की आंखों से देखना, समझना और महसूस करना। गुज़रे चुके वक़्त को दोबारा बुलाने जैसा मानसिक प्रयोग भी कह सकते हैं आप। गुज़रा हुआ ज़माना मेरे मन से निकली उन खामोश आवाज़ों को सुन भी लिया करता था। वही चाय की दुकानों से आती आवाज़ें। समोसा-तिकी बेचने वालों की आवाज़ें। आसपास बने छोटे छोटे ढाबों की आवाज़ें। कोशिश करो तो अब भी सुनाई देती हैं वे सब आवाज़ें। 
आपको याद हो न हो यह वही स्थान है जहां कभी सेशन कोर्ट हुआ करती थी। इस चौंक का नाम सेशन चौंक हुआ करता था। लोग इसे पुरानी कचहरी चौंक भी बोला करते। हर रोज़ सुबह से ही यहां अदालती झगड़ों में उलझे लोगों की भीड़ सी जमा हो जाती। इंसाफ पाने की उम्मीद बहुत से पीड़ित लोगों को अदालत में ले आती। यह बात अलग है उन्हें अक्सर हर बार नई तारीख ही मिलती। देश में आज़ादी आने के बाद जन्मी पीढ़ियों ने भी इस अदालत के सीन देखे और उनके बज़ुर्गों ने भी। आतंकवाद के दौरान यहां गोलियां भी चलीं जब खालिस्तानी संगठनों ने अपने एक खास सदस्य को छुड़वा लिया था। बजुर्ग लोग बताते हैं कि उस दिन सभी सन्न रह गए। हम लोग गोलिओं की आवाज़ सुनते ही ज़मीन पर लेट गए। गोलियां कुछ मिनटों तक चलती रहीं।  सनसनी सी छायी रही। अगले दिन फायरिंग की यही घटना अखबारों की हेड लाईन बनी।
इस तरह बहुत सी यादें हैं जो घर परिवार के लोगों से पता चलती हैं। मैने खुद यहां पर अदालत का सीन नहीं देखा। बातें सुन कर इच्छा उठती कि काश अतीत भी किसी तरह आंखों के सामने आ जाया करे। अब तो वीडियो कैमरे भी आम हो गए हैं और वीडियो बना कर अनमोल दृश्यों को संभालने वाले लोग भी बहुत हो गए हैं। उन दिनों इस तरह का चलन आम नहीं था।
इसलिए यहां लगे बैंच पर बैठ कर अतीत को महसूस करना बहुत अच्छा लगता था। अब वह बैंच भी नहीं है। उसी स्थान पर लिखा है-आई लव लुधियाना। यह भी तो मेरे ही मन की आवाज़ है। अतीत के अनुभव कराने वाला यह स्थान मुझे आज भी बहुत अच्छा लगता है।-- कार्तिका सिंह

कांटों से निभाना सीख लो फिर फूल ही फूल खिलते रहेंगे

यकीन न हो तो आज़मा कर देख लो-सच में मान जाओगे 
लुधियाना: 8 दिसंबर 2019: (कार्तिका सिंह//मन की दुनिया-मन के रंग)::
कैक्टस गार्डन का होना मेरे लिए सचमुच किसी हैरानी से कम नहीं था। जब मैंने सुना कि बाकायदा इस नाम का एक बाग़ मौजूद है तो मैंने इस जा कर देखने का मन बनाया। बेहद हैरानी थी की कोई कांटों से इतना प्रेम कैसे कर सकता है। फिर याद आयीं कुछ पंक्तियां। कभी किसी शायर ने लिखा था:
गुलों से खार बेहतर हैं जो दामन थाम लेते हैं! दरअसल कैक्टस गार्डन की चर्चा सुनी पीएयू के गुलदाउदी शो में जो 3 और 4 दिसम्बर को था। समाप्त हो रहे वर्ष 2019 को महकते अंदाज़ में विदा कहने का एक यादगारी अंदाज़ जिसे केवल पीएयू की मैनेजमेंट ही जानती है। इसी गुलदाउदी शो में एक स्टाल एक ऐसे व्यक्ति का भी था जिसने कांटेदार पौदों को बहुत अच्छे ढंग से सजाया हुआ था और वह कैक्टस के इन पौदों को 200/-रुपये प्रति गमला के हिसाब से बेच रहा था। इन छोटे छोटे गमलों को ड्राईंग रूम में रखने के काम लाया जाता है। इनको पानी चाहिए बहुत ही थोड़ा सा और वह भी महीने में दो बार।
इसी गुलदाउदी शो में मुझे पता चला कि कैक्टस गार्डन का नाम अब बदल जा चुका है। अब इसका नाम बदलकर राष्ट्रीय कैक्टस और सस्कुलेट बॉटनिकल गार्डन और रिसर्च सेंटर रखा गया है, जोकी चंडीगढ़ के सैटेलाइट शहर पंचकूला के केंद्र में स्थित है। अजीब इतफ़ाक़ है कि चंडीगढ़ को पत्थरों का शहर कहा जाता है और यहां का रॉक गार्डन सचमुच बहुत लुभावना है। अब पंचकूला का कैक्टस गर्दन भी बहुत लोकप्रिय है। उन काँटों की बात करता हुआ जो सिर्फ चुभते ही नहीं बल्कि फूलों की रक्षा भी करते हैं। इस उद्यान के विकास के पीछे उद्देश्य कैक्टस और सुकुलुओं की लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण और संरक्षण के साथ-साथ पर्यटकों को आकर्षित करना था। सात एकड़ जमीन के क्षेत्र में फैला हुआ यह एशिया के सबसे बड़े आउटडोर भू-भाग के कैक्टस और सूक्कुल गार्डन के रूप में माना जाता है जिसमें 2500 से अधिक प्रजातियों के कैक्टस और सुकुलेंट हैं। यहां कई तरह के कांटेदार पौदे हैं। फिर भी यहां कोई कांटा किसी हसीना को उस तरह नहीं चुभता कि उसे अपने प्रेमी को आवाज़ लगानी पड़े। दिलचस्प बात है कि लिखने वालों ने हिंदी और पंजाबी दोनो में ही कांटों पर बहुत एच्गीहके रुमान्टिक गीत लिखे हैं। इस गार्डन में भारतीय सुकलों का एक व्यापक संग्रह है, जो दुनिया में सबसे बड़ा है, इनमें से कुछ बहुत दुर्लभ हैं और पहले से ही लुप्तप्राय प्रजातियों के रूप में घोषित कर चुके हैं, जिसमें भारतीय मूल के जीनस कार्लुमा का पूरा संग्रह शामिल है। बगीचे में तीन हरे घरों का घर है कैक्टस और सुकुलु भी औषधीय मूल्यों के लिए जाना जाता है क्योंकि सदियों से भारतीय शर्करा का उपयोग आयुर्वेद और यूनानी दवाओं में किया जा रहा है। यह न केवल पर्यटकों के लिए बल्कि वनस्पतिविदों के लिए आकर्षण का एक बड़ा स्रोत है। यह पार्क अप्रैल से सितंबर के बीच मे सुबह 9 से 1 बजे तक और शाम 3 से 7 बजे तक तथा अक्तुबर से मार्च तक सुबह 9 बजे से 1 बजे तक और शाम 2 से 6 बजे तक खुला रहता है। इसका प्रवेश शुल्क 10 रु प्रति व्यक्ति है। मेरा इरादा है इस वर्ष के अंत में जब एग्ज़ाम समाप्त हो जाएंगे तो क्रिसमिस की छुट्टियों को इस गार्डन में जा कर यादगारी बबय जाए। इसके बाद मिलेंगे कुछ नई तस्वीरें लेकर।

Saturday, November 23, 2019

फिल्मों में दृश्य, गैर-संवाद भागों का अतिरिक्त वर्णन शामिल होगा

प्रविष्टि तिथि: 23 NOV 2019 1:15PM by PIB Delhi
तीन फिल्में इस विशेष श्रेणी में शामिल होंगी
गोवा: 23 नवंबर 2019: (पत्र  सूचना कार्यालय के सक्रिय सहयोग से):: 
गोवा से आ रही हैं फिल्मोत्सव की खबरें और तस्वीरें। इस बार खुल कर हुई है उन फिल्मों की चर्चा जिनका ज़िक्र सीधे या सूक्ष्म रूप से हमारे तन से नहीं बल्कि मन से है। मन के तारों को छेड़ने वाली फिल्मों की अहमियत अभी लगातार और बढ़ेगी। इस बार इसका बहाना बने हैं दिव्‍यांग और दृष्टिहीन जैसे मजबूर नामों और हालातों का सामना कर रहे लोग। मन पर आधारित फिल्मों का युग फिर लौटेगा इसका संकेत मिला है आईएफएफआई के इस आयोजन से।
     आईएफएफआई के 50वें महोत्‍सव को एक समावेशी आयोजन बनाने के लिए ‘एक्सेसिबल इंडिया- एक्सेसिबल फिल्म्स’ श्रेणी के तहत विशेष आवश्यकता वाली तीन फिल्मों का प्रदर्शन किया रहा है।
यह आईएफएफआई, सक्षम भारत और यूनेस्को का एक संयुक्त भागीदारी है। इसका उद्देश्य ऑडियो के जरिये दिव्‍यांग लोगों के लिए समावेशी जगहों के सृजन को बढ़ावा देना है।
राजकुमार हिरानी द्वारा निर्देशित ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ के साथ इस श्रेणी का उद्घाटन हुआ। इसे इस महोत्‍सव के निदेशक चैतन्य प्रसाद, ईएसजी के वाइस-चेयरमैन सुभाष फलदेसाई, ईएसजी के सीईओ अमित सतीजा और अभिनेत्री तापसी पन्नू ने लॉन्च किया। इस कार्यक्रम में लोकविश्‍वास प्रतिष्‍ठान, दृष्टिहीन स्कूल, पोंडा और नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड के छात्रों ने भाग लिया।
इस महोत्‍सव में पहली बार भाग ले रहीं अभिनेत्री तापसी पन्नू ने कहा कि उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि ऐसी फिल्में भी बनाई गई हैं। उन्‍होंने कहा, ‘मैंने ऐसी फ़िल्में नहीं देखी हैं जो दृश्यों को समझाने के लिए ऑडियो का उपयोग करती हों। इसलिए मैं निश्चित रूप से यह देखना चाहती थी कि यह कैसे हुआ।’
सुश्री तापसी पन्‍नू ने कहा, ‘मैं 'दृष्टिहीन' शब्द का उपयोग नहीं करना चाहती। वास्तव में आपकी अन्य इंद्रियां हमारे मुकाबले कहीं अधिक मजबूत हैं। मुझे खुशी है कि ऐसी फिल्में आप तक पहुंच सकती हैं।’ उन्‍होंने उम्‍मीद जताई कि भविष्‍य में उानकी फिल्मों को भी ऑडियो फिल्मों में भी बदली जाएंगी।
इस दौरान जिन फिल्मों को दिखाया जाएगा उनमें 'लगे रहो मुन्नाभाई', 'एमएस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी' और कोंकणी फिल्म 'क्वेस्टो डी कन्‍फ्यूसाओ' शामिल हैं जिन्‍हें नेत्रहीनों के लिए अतिरिक्त सामग्री के साथ प्रदर्शित किया जाएगा। (पसूका)
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आरकेमीणा/आरएनएम/एएम/एसकेसी/एनके–4368

Monday, July 15, 2019

एक अनकही मुलाकात--संजीत कौर के साथ

वह अंतरंग मुलाकात--जो अब भी जारी है 
कभी लिखा था कि.....
मिलती हैं जो ठोकरे राह ऐ ज़िन्दगी में, 
कभी कभी उन्हें खा कर रुक जाना ही बेहतर है. 
न जाने रचियता का,
किस और मुड़ने का इशारा हो..!
संजीत के साथ कुछ पल कैमरे के सामने 
अब इन्ही पंक्तियों के क़दमों पे चलते हुए, रुक गयी हु, तो मन पीछे भाग रहा है..... क्या हुआ, क्या नहीं होना चाहिए था, ऐसा क्यों हुआ, वैसा क्यों हुआ वगैरा वगैरा। कौन  लोग आये ज़िन्दगी, क्यों आये, कई क्यों चले गए।  सब कुछ जैसे इस आराम के क्षण में ही दिलो-दिमाग में आना था।  पर करू भी तो क्या... ये दिल है भी अपना ही....... रोके नहीं रुकता।  लोगो के बारे में सोचते हुए..... कब बात औरतों की ओर चली गयी पता ही नहीं लगा। महिला दिवस की एक दिन की मुबारक बात, सोचने को मज़बूर करती है कि क्या बाकी बचे 364 दिन औरत को लूटने के लिए ही बने है? क्यों ये समाज कभी औरत को निचे गिरा देता तो कभी भगवान से भी ऊपर उठा देता है। ये समाज, ये लोग क्यों नहीं सोचते की ज़िन्दगी की गाड़ी औरत और मर्द नामक दो पहियों पर ही चल सकती है।  खैर ये तो थे मेरे विचार।  लेकिन जब मैं महिला सशक्तिकरण के बारे में सोचती हू, तो अनगिनत उदहारण मेरे पलकों में समां जाते है।  की क्या क्या किया है औरतों ने।  घूरती हुई नज़रों से बचते हुए, समाज की जंजीरों को तोड़ते हुए, पर भी अपने अंदर की ममता को संभाले हुए, कभी  मैं भी कभी इस तरह की कोई उदहारण बन पायूँगी ? पता नहीं, लेकिन ऐसी एक उद्धरण को मैं हर रोज़ अपनी आँखों के सामने देखती हूँ।  एक लड़की कितनी मज़बूत हो सकती हैं..,.. इस की ज़िंदा मिसाल से मैं हर रोज़ बात करती हूँ..... खाना कहती हूँ, हंसती-बोलती हूँ।  सोच कर आश्चर्य होता है , लेकिन ये सच है।  हमारे कॉलेज की बहुत ही अच्छी, होनहार, होंसले वाली, कभी हार न मानने वाली, हर कदम पर मुसीबत से टक्कर लेने वाली  एक लड़की संजीत कौर।  वैसे है तो मेरी प्रिय सखी, लेकिन उस के कामों ने उसे बहुत ऊँचा उठा दिया हैं ..लेकिन  कदम अब भी ज़मीन पर ही हैं।  आसमानों तक पहुंच करके भी उसने ज़मीन नहीं छोड़ी। राजपथ पर राष्ट्रपति सहित अनेक मशहूर लोगो से मिलने के बावजूद भी ..... हमसे वो उसी तरह मिलती है जिस तरह पहले  मिलती थी..... उतने ही प्यार और पागलपन के साथ।  उसकी तारीफ में मैं क्या कहूं....... लेकिन एक गीत मेरे ज़हन में आ रहा है ...फिल्म अकीरा का गीत..... उस गीत की चंद लाइनें उसे समर्पित ज़रूर कर सकती हूँ। 
आगे आगे रस्ते नए,
नए मोड़ सारे ,
न तू कभी घबरा रे,
चले जा अकेले तू अपने ही दम पे,
तेरा हमसफ़र हौंसला रे......... 
रास्ते फ़िलहाल एक से लगते हैं लेकिन कब अलग हो जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। कब मंज़िलें बदल जाएं-कुछ कहा नहीं जा सकता। ज़िंदगी के संघर्षों में बहुत कुछ बदल सकता है।  शायद उस बदलाव को रोक पाना सम्भव भी नहीं होता। कई बार ये बदलाव इतने प्राकृतिक होते हैं कि इन्हें रोकना चाहिए भी नहीं। इस हकीकत के बावजूद मन में एक आकांक्षा बनी रहती है कि हमारा दिल अगर किसी मोड़ पर आ कर न भी मिले तो भी हमारा सुर तो मिला ही रहे।  उसकी मक्की की रोटी, सरसों का साग और उसकी मम्मी का प्यार मेरे लिए हमेशां ही मन में एक विशेष स्थान पर रहेगा। --कार्तिका सिंह 

Wednesday, January 2, 2019

ਰਸੂਲ ਹਮਜ਼ਾਤੋਵ ਦੀ ਪੁਸਤਕ "ਮੇਰਾ ਦਾਗਿਸਤਾਨ" ਨਾਲ ਮੇਰੀ ਮੁਲਾਕਾਤ ਕਿਵੇਂ ਹੋਈ?

ਦਾਗਿਸਤਾਨ ਅਤੇ ਪੰਜਾਬ ਨੂੰ ਜੋੜਨ ਵਾਲਾ ਬੌਧਿਕ ਪੁਲ ਲੱਗਦੀ ਹੈ ਇਹ ਕਿਤਾਬ 
ਕਿਤਾਬਾਂ ਦੀ ਦੁਨੀਆ: 2 ਜਨਵਰੀ 2018: (ਕਾਰਤਿਕਾ  ਸਿੰਘ)
ਕੁਝ ਦਿਨ ਪਹਿਲਾ ਰਸੂਲ ਹਮਜ਼ਾਤੋਵ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤਾ। ਕਈਆਂ ਨੇ ਕਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਰਸੂਲ ਦੀ ਬਹੁਚਰਚਿਤ ਪੁਸਤਕ "ਮੇਰਾ ਦਾਗਿਸਤਾਨ" ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ।  ਘਟੋਘੱਟ ਲੇਖਕਾਂ ਲਈ ਤਾਂ ਬੇਹੱਦ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ ਕਿ ਓਹ ਸਾਰੇ ਰਸੂਲ ਹਮਜ਼ਾਤੋਵ ਦੀ ਇਸ ਪੁਸਤਕ ਨੂੰ ਜ਼ਰੂਰ ਪੜ੍ਹਨ। ਇੱਕ ਵਾਰੀ ਤਾਂ ਸਾਡੀ ਪੰਜਾਬੀ ਦੀ ਅਧਿਆਪਕ ਸਾਹਿਬਾ ਨੇ ਵੀ ਕਹਿ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਲਾਇਬਰੇਰੀ ਵਿੱਚੋ "ਮੇਰਾ ਦਾਗਿਸਤਾਨ" ਨਾਂ  ਦੀ ਕਿਤਾਬ ਨੂੰ ਜ਼ਰੂਰ ਪੜ੍ਹੋ।  ਬਸ ਫੇਰ ਕਿ ਸੀ ਅਧਿਆਪਕਾਵਾਂ ਦਾ ਕਿਹਾ ਥੋੜੀ ਮੋੜੀ ਦਾ ਹੈ...ਆਪਾਂ ਲੱਗ ਗਏ ਕਿਤਾਬ ਦੀ ਖੋਜ ਵਿਚ।  ਪਰ ਜਿਵੇਂ ਕਿਤਾਬ ਨੇ ਵੀ ਕਸਮ ਖਾਧੀ ਹੋਈ ਸ ..ਜਾ ਕੁੜੀਏ, ਮੈਂ ਨਹੀਂ ਤੇਰੇ ਹੱਥ ਆਉਂਦੀ।  ਮਤਲਬ ਕਿ ਮੈਂ ਪੂਰਾ ਇੱਕ ਮਹੀਨਾ ਕਾਲਜ ਦੀ ਲਾਇਬ੍ਰੇਰੀ ਵਿਚ ਉਸ ਕਿਤਾਬ ਨੂੰ ਲੱਭਣ ਦੇ ਨਿਸਫਲ ਜਤਨ ਕੀਤੇ।  ਅਖ਼ੀਰ ਵਿਚ ਵੀ ਹੱਥ ਖਾਲੀ ਹੀ ਰਹੇ।  ਲਗਭਗ ਲਾਇਬ੍ਰੇਰੀ ਦੇ ਸਾਰੇ ਸਟਾਫ ਨੂੰ ਇਹ ਪਤਾ ਲੱਗ ਚੁੱਕਾ ਸੀ ਕਿ ਮੈਂ "ਮੇਰਾ ਦਾਗਿਸਤਾਨ" ਨਾਂ ਦੀ ਕਿਤਾਬ ਲੱਭ ਰਹੀ ਹਾਂ।  ਬਸ ਜਿਵੇਂ ਉਸ ਕਿਤਾਬ ਨੂੰ ਹੀ ਨਹੀਂ ਪਤਾ ਸੀ ਕਿ ਮੈਂ ਉਸਨੂੰ ਲੱਭ ਰਹੀ ਹਾਂ।  ਫੇਰ ਇਮਤਿਹਾਨ ਆ ਗਏ।  ਇਸ ਭਾਲ ਵਿਚ ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਦੀ ਬਰੇਕ ਲੱਗ ਗਈ।  ਕਿਤਾਬ ਦੀ ਗੱਲ ਵੀ ਆਈ ਗਈ ਹੋ ਗਈ।  ਪਰ ਕਿਸਮਤ ਨੇ ਸ਼ਾਇਦ ਉਸ ਕਿਤਾਬ ਦੇ ਵੀ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਵਾਉਣੇ ਹੀ ਸਨ। 
ਕਹਿੰਦੇ ਨੇ ਜੇ ਚਾਹਤ ਵਿੱਚ ਤਾਕਤ ਹੈ ਤਾਂ ਇਹ ਪੂਰੀ ਵੀ ਜ਼ਰੂਰ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਇਹੀ ਕੁਝ ਸ਼ਾਇਦ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਇਸ ਕਿਤਾਬ ਦੇ ਮਾਮਲੇ ਵਿੱਚ ਵੀ ਵਾਪਰਿਆ। 
     ਇੱਕ ਦਿਨ ਮੈਂ ਇਮਤਿਹਾਨ ਦੇ ਕੇ ਵਾਪਿਸ ਆਈ ਤਾਂ ਪਾਪਾ ਨੂੰ ਪੇਪਰ ਦਿਖਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਕਮਰੇ ਵਿਚ ਜਾਣ ਲੱਗੀ। ਪਾਪਾ ਨੇ ਕਿਹਾ ਕਿ ਇੱਕ ਮਿੰਟ ਰੁਕ।  ਫੇਰ ਉਹ ਆਪਣੇ ਬੈਗ ਵਿਚ ਕੁਝ ਫੋਲਾ-ਫਾਲੀ ਕਰਨ ਲੱਗ ਪਏ।  ਮੈਂ ਸੋਚਿਆ ਕਿ ਕੁਝ ਖਾਣ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਆਏਂ ਹੋਣਗੇ--ਪਰ ਇਹ ਤਾਂ ਕੁਝ ਹੋਰ ਹੀ ਸੀ। ..... ਉਹ ਕਹਿੰਦੇ ਦੇਖ ਤਾਂ ਸਹੀ। ..ਥਕਾਵਟ ਦੇ ਮਾਰੇ ਮੇਰੀ ਜਾਨ ਨਿਕਲ ਰਹੀ ਸੀ।  ਫੇਰ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਇੱਕ ਲਿਫ਼ਾਫ਼ਾ ਮੇਰੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਪਕੜਾਇਆ। ਮੈਂ ਫਟਾਫਟ ਉਸਨੂੰ ਖੋਲ ਕੇ ਦੇਖਿਆ।  ਉਸ ਲਿਫਾਫੇ ਵਿੱਚ ਤਾਂ ਮੇਰੀ ਰੂਹ ਦੀ ਖੁਰਾਕ ਸੀ। ਸ਼ਾਇਦ ਕੋਈ ਨਵੀਂ ਕਿਤਾਬ। ਖੋਹਲ ਕੇ ਦੇਖਿਆ ਤਾਂ ਉਸ ਲਿਫਾਫੇ ਵਿਚ "ਮੇਰਾ ਦਾਗਿਸਤਾਨ"  ਕਿਤਾਬ ਦੋ ਭਾਗਾਂ ਵਿਚ ਮੌਜੂਦ ਸੀ।  ਮੇਰੀ ਖੁਸ਼ੀ ਦਾ ਕੋਈ ਅੰਤ ਹੀ ਨਾ ਰਿਹਾ।  ਏਨੀ ਖੁਸ਼ੀ-ਏਨੀ ਖੁਸ਼ੀ ਕਿ ਪਾਪਾ ਨੂੰ ਧੰਨਵਾਦ ਕਰਨਾ ਵੀ ਭੁੱਲ ਗਈ।  ਬਸ ਕਿਤਾਬ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕਲੇਜੇ ਨਾਲ ਲਗਾ ਲਿਆ, ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਕੋਈ ਮਾਂ ਆਪਣੇ ਬੱਚੇ ਨੂੰ ਲਗਾਉਂਦੀ ਹੈ।  ਫੇਰ ਥੋੜੀ ਦੇਰ ਬਾਅਦ ਯਾਦ ਆਉਣ ਤੇ ਮੈਂ  ਓਹਨਾ ਨੂੰ ਸ਼ੁਕਰੀਆ ਕਿਹਾ।  ਇਹ ਪੁਸਤਕ ਇੱਕ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਲੇਖਕ ਦੀ ਹੈ। ਉਸਦੇ ਦਾਗਿਸਤਾਨ ਦੀ। ਇਹ ਰੂਸ ਦਾ ਹੀ ਇੱਕ ਇਲਾਕਾ ਹੈ ਜਿਸਨੂੰ ਸਰਕਾਰੀ ਤੌਰ ਤੇ "ਰਿਪਬਲਿਕ ਆਫ ਦਾਗਿਸਤਾਨ" ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸਦਾ ਖੇਤਰਫਲ ਸ਼ਾਇਦ ਭਾਰਤੀ ਪੰਜਾਬ ਜਿੰਨਾ ਹੀ ਹੈ-50.300 ਵਰਗ ਕਿਲੋਮੀਟਰ। ਰਸੂਲ ਦੇ ਇਸ ਮਿਸਾਲੀ ਇਲਾਕੇ ਵਿੱਚ ਵੀ 1990ਵਿਆਂ ਵਿੱਚ ਅੱਤਵਾਦ ਅਤੇ ਦਹਿਸ਼ਤਗਰਦੀ ਨੇ ਜ਼ੋਰ ਫੜਿਆ। ਦਾਗਿਸਤਾਨ ਨੂੰ ਨਜ਼ਰ ਲੱਗਦੀ ਚਲੀ ਗਈ।  ਫਿਰ ਇੱਕ ਉਹ ਦਿਨ ਵੀ ਆਇਆ ਜਦੋਂ 5 ਫਰਵਰੀ 2018 ਵਾਲੇ ਦਿਨ ਦਾਗਿਸਤਾਨ ਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਭੰਗ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਅਤੇ ਇਸਦਾ ਸਿਧ ਕੰਟਰੋਲ ਰੂਸੀ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਹੱਥ ਆ ਗਿਆ। ਇਸ ਦੀਆਂ 12013 ਸਰਕਾਰੀ ਬੋਲੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਛੇ-ਸੱਤ ਗੈਰ ਸਰਕਾਰੀ ਬੋਲੀਆਂ ਵੀ ਹਨ। 
ਰਸੂਲ ਹਮਜ਼ਾਤੋਵ ਨੇ ਇਹ ਕਿਤਾਬ ਆਵਾਰ ਬੋਲੀ  ਵਿੱਚ ਲਿਖੀ ਸੀ। ਬਾਅਦ ਵਿੱਚ ਇਹ ਕਿਤਾਬ ਸ਼ਾਇਦ ਦੁਨੀਆਂ ਦੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਵਿੱਚ ਅਨੁਵਾਦ ਹੋਈ। ਪੰਜਾਬੀ ਵਿਛ ਇਸਦਾ ਅਨੁਵਾਦ ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਵਿਦਵਾਨ ਲੇਖਕ ਗੁਰਬਖਸ਼ ਸਿੰਘ ਫਰੈਂਕ ਨੇ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਇਹ ਕਿਤਾਬ ਹਿੰਦੀ ਵਿੱਚ ਵੀ ਬਹੁਤ ਹਰਮਨ ਪਿਆਰੀ ਹੈ। ਪੰਜਾਬੀ ਵਿੱਚ ਇਸਦਾ ਮੁਕੰਮਲ ਪਰਕਾਸ਼ਨ  ਅਰਥਾਤ ਦੋਵੇਂ ਭਾਗ ਇੱਕੋ ਇੱਕ ਜਿਲਦ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਕਸ਼ਿਤ ਕੀਤਾ ਤਰਕਭਾਰਤੀ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਨ ਬਰਨਾਲਾ ਵਾਲਿਆਂ ਨੇ ਜਿਸਦੀ ਕੀਮਤ 400/-ਰੁਪਏ ਰੱਖੀ ਗਈ। ਜੇ ਦੋ ਭਾਗਾਂ ਵਾਲੀ ਕਿਤਾਬ ਖਰੀਦੀ ਜਾਈ ਤਾਂ ਡਿਸਕਾਊਂ ਮਗਰੋਂ ਹੁਹ ਵੀ ਏਨੇ ਵਿੱਚ ਹੀ ਪੈ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। 
ਮੇਰਾ ਦਾਗਿਸਤਾਨ ਨੂੰ ਪੜਦਿਆਂ ਕਦੇ ਵੀ ਇਹ ਮਹਿਸੂਸ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਕਿਸੇ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਲੇਖਕ ਦੀ ਕਿਸੇ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਪੁਸਤਕ ਦਾ ਕੋਈ ਅਨੁਵਾਦ ਪੜ੍ਹ ਰਹੇ ਹੋ। ਹਰ ਵਰਕੇ 'ਤੇ--ਹਰ ਪਹਿਰੇ  'ਤੇ ਇਸ ਤਰਾਂ ਮਹਿਸੂਸ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਜਿਵੇਂ ਇਹ ਸਾਡੀ ਹੀ ਗੱਲ ਹੈ।  ਕਦੇ ਮਹਿਸੂਸ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਸੀਂ ਓਇ ਕਵਿਤਾ ਪੜ੍ਹ ਰਹੇ ਹਾਂ--ਕਦੇ ਲੱਗਦਾ ਹੈ ਕੋਈ ਗੀਤ ਗੁਣਗੁਣਾ ਰਹੇ ਹਾਂ, ਕਦੇ ਲੱਗਦਾ ਹੈ ਕੋਈ ਨਾਵਲ ਪੜ੍ਹ ਰਹੇ ਹਾਂ, ਖੇਡ ਇਹ ਕਹਾਣੀ ਲੱਗਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਕਦੇ ਕੋਈ ਦਿਲਚਸਪ ਲੇਖ। ਬਹੁਤ ਹੀ ਵਿਲੱਖਣ ਸ਼ੈਲੀ ਵਾਲੀ ਪੁਸਤਕ ਹੈ ਇਹ ਜਿਸ ਦਾ ਅਨੰਦ ਇਸਨੂੰ ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਹੀ ਮਾਣਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਪੁਸਤਕ ਦਾਗਿਸਤਾਨ ਅਤੇ ਪੰਜਾਬ ਨੂੰ ਜੋੜਨ ਵਾਲਾ ਇੱਕ ਬਿਧਿਕ ਪੁਲ ਮਹਿਸੂਸ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਪਤਾ ਹੀ ਨਹੀਂ ਲੱਗਦਾ ਕਦੋ ਇਸ ਵਿੱਚ ਸਾਨੂੰ ਸਾਡਾ ਪੰਜਾਬ ਅਤੇ ਸੱਭਿਆਚਾਰ ਮਹਿਸੂਸ ਹੋਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਵੀ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਲੱਗਦਾ ਕਿ ਕਦੋਂ ਦਾਗਿਸਤਾਨ ਆਪਣਾ ਸਿਰ ਕੱਢ ਕੇ ਸਾਡੀ ਸਮਝ 'ਤੇ ਮੁਸਕਰਾ ਰਿਹਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਕਿਸੇ ਅਨਵੀਂ ਪੋਸਟ ਵਿੱਚ ਵੀ ਇਸ ਪੁਸਤਕ ਦੀ ਚਰਚਾ ਕਰਾਂਗੀ ਪਰ ਹਥਲੀ ਪੋਸਟ ਵਿੱਚ ਇਹੀ ਕਹਿਣਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਲੱਗਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਕਿਤਾਬ ਸਭਨਾਂ ਨੂੰ ਜ਼ਰੂਰ ਪੜ੍ਹਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ। ਖਾਸ ਕਰਕੇ ਲੇਖਕਾਂ ਨੂੰ। 

Wednesday, June 6, 2018

गुरुओं ने कहा था "पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत..."

लेकिन प्रकृति का क्या हाल कर दिया हमने---

पंजाब के पानी में भी घोली जा चुकी है प्रदुषण की ज़हर
लुधियाना: 6 जून, 2018: कार्तिका सिंह 

 कभी तेज धुप तो कभी झमाझम बारिश। कभी कंपकंपाती सर्दी और चारो तरफ धुंध तो अगले ही पल आसमान साफ़...... यह चमत्कार नहीं; कोप है प्रकृति का।  विकास के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़  सालों से होती रही है।  विकास कितना हुआ यह देखने की बात है पर इस दौरान प्रकृति के साथ हमने क्या किया-----यह सोचने की बात है।  

आज  न शुद्ध पानी है, न हवा और न ही शांत स्वच्छ वातावरण। एक ऐसे देश में जहाँ गंगा यमुना को माता माना जाता है और यहाँ की नदी में कलकल बहता जल आस्था का विषय है।  उस देश में गंगा नदी की हालत हमने ऐसी कर दी है, की पीना या नहाना तो दूर उस पानी को देखना भी अब बुरा लगता है।  
                                                                 घर आंगन में तुलसी और पीपल के पौधों को पूजने वाले हम लोगो ने बड़ी बड़ी इमारतो को खड़ा करने के लिए पेड़ों को सरे आम कटवा कर अपने रस्ते से हटवा दिया।  लगातार अलग अलग कारणों से हम पेड़ काटते रहे. इसके लिए हम नए नए बहाने भी ढूँढ़ते रहे। यह एक ऐसा पाप था--एक ऐसा अपराध जिसकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग का स्तर बड़ा।  इससे भौगोलिक और पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हो गया।  स्थिति भयानक होने के बावजूद हम लगातार अपनी सुविधा और हित के लिए पेडों को काट रहे है।  पेड़ कह रहा है--- "पेड़ हूँ मैं, जानता हूँ प्रकृति के नियम को, काटे हो जब मुझको, तो काटते हो तुम स्वयं को।" हमने कभी पेडों की या नदियों की चेतावनी नहीं सुनी। हमने अपनी अंतर् आत्मा से उठीं ऐसी सभी आवाज़ों को भी अनसुना कर दिया। गुरु ग्रन्थ साहिब में लिखा है ------" पवन गुरु , पानी पिता, माता धरत महत "  अर्थात हवा को गुरु , पानी को पिता और धरती को माँ का दर्जा दिया गया है।  लेकिन कितने लोगों ने इसे अपने जीवन में उतारा?
             हम अधिक विकास की रफ़्तार के चलते तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे है।  पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों और उन संसाधनों के दोहन में अत्यधिक अंतर है।  अत्यधिक दोहन के चलते शीघ्र ही प्राकृतिक संसाधनों के भण्डार समाप्ति के कगार पर पहुँच जायेगा। लगातार बढ़ती गाडियों की संख्या से वायु प्रदूषण बढ़ गया है।  सांस लेना मुश्किल हो गया है।  वन्य जीवो का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है।  बार - बार आग लगने के कारण छोटे वनस्पतियों की कई प्रजातियाँ ही समाप्त  गयी है।  खेतो में भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरको के पर्योग से भूमि बंजर होती जा रहगी है।  परंपरागत खादों का उपयोग लगभग बांध हो गया है।  भू - जल स्तर तेजी से गिरता जा रहा है भूमि में हो रहे बोर-पम्प के कारण भूगार्भिक जल का स्तर तेजी से घटता जा रहा है।  
                       इस समस्या को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने  1972 में स्टोकहोम में आयोजित एक कांफ्रेंस  द्वारा विशव प्रयावरण दिवस का सुझाव संसार के सन्मुख प्रस्तुत किया।  वर्ष 1973 में 5 जून को विशव प्रयावरण दिवस मनाया गया।  तब से ले कर हर वर्ष इसी दिन पुरे संसार में विशव प्रर्यावरण दिवस मनाया जाता है।  अब जब पुरी दुनिया में इस दिन को मनाया जाने लगा है, तो -- हमारे लिए ये सोचने की बात है , कि आखिर हमें शुद्ध पानी, हवा और शांत वातावरण को नुक्सान पहुचाकर विकास चाहिए या नहीं।  क्या हमें संयुक्त राष्ट्र के इस साल के स्लोगन " बीट प्लास्टिक पाल्यूशन " थीम पर सोचने और अमल करने की ज़रुरत है या नहीं।  और काबिल - ऐ - ज़िक्र है कि हमारा देश इस साल विशव पर्यावरण दिवस की मेजबानी कर रहा है। 
                                                            पर हर बार की तरह 5 जून , प्रयावरण दिवस इस बार भी गुजर गया।  मना लिया होगा , अच्छे से , है न----- पर गेती , फावड़े , संरक्षण की चिंताए, प्रयावरण को संभालने की फ़िक्र तो नहीं रख दी न ?---- कि अब अगले साल तक तो फुर्सत मिली।   भूल जाईये ! अब ये फुर्सत , आराम हमारे हिस्से में नहीं रहा।  जो हालत हमने दुनिया की बना ली है , उसमे कई दशको तक दुनिया का ख्याल रखे जाने की ज़रुरत है।  इक्का - दुक्का परवाह से अब काम न चलेगा।  फिर संग आने के लिए एक 5 जून काफी न होगा।  इमारते खड़ी हो रही है , नदिया सूख रही है।  खेत घटते जा रहे रहे है , पेड़ नज़र से परे हो रहे है।  कचरा ज़मा हो रहा है , छांटा -बांटा भी जा रहा है , पर कम कहाँ हो रहा है ? सीमेंट की हमारी बसाहटो में , प्लास्टिक की सजावट हो रही है , जो प्रकृति का सबसे बड़ा दुश्मन है।  
                 हम इन्सान पृथ्वी के दुसरे प्राणियों की तुलना में खुद को बहुत प्रगतिसंपन , विचारशील और संवेदनशील मानते है।  वो जो पिछरे हुए प्राणी है , वह प्रकृति को संभाले हुए है , हैरत होती है न।  जिसे हमने तरक्की समझा , उसमे कुदरत को शामिल ही नहीं किया।  जब तक कुदरत के साथ थे ,खुश थे -- अब पराजित हैं , बीमार हैं।  करीब 200 बर्षों तक हमने जो सीखा, विकास के नए नए प्रतिमान गढ़ लिए लेकिन यह सभी प्रतिमान हमारे नहीं थे--विदेशों के थे।  अब अगले एक दशक में उसकी परीक्षा देनी है।  पहाड़ों को काटने , सागर का सीना चीरने, नदियों के परवाह पर नियंत्रण रखने और हवाओ के रुख को मोड़ देने का दमखम रखने वाले--- इस प्रथ्वी के सबसे समझदार प्राणी, हम इंसानों को अपने ग्रह को प्लास्टिक में डूबने , सूखे से तिड़कने  और भूख से तड़पने से रोकने की चुनौती का सामना करना होगा।  हर इन्सान को प्रयावरण का मित्र बनना होगा।  जीवन की चाह में प्रकृति की हत्या को रोकना होगा।   

       इसी बीच केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री डॉ. हर्ष वर्धन ने कहा है कि प्रदूषण और पर्यावरण संबंधित विषयों पर कानून और अधिनियम पारित किए जा चुके हैं और अब लोगों को इस पर अमल करना है। विश्‍व पर्यावरण दिवस समारोह के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए डॉ. हर्ष वर्धन ने आज यहां कहा कि पर्यावरण की देखभाल करना भारत की समृद्ध विरासत रही है। उद्घाटन सत्र नेचुरल केपिटल ऑफ इंडिया विषय पर आयोजित किया गया था। उन्‍होंने आगे कहा कि हमारे देश में भूमि, पेड़ और नदियों को दिव्‍य आशीर्वाद के हिस्‍से के रूप में समझा जाता है और इन्‍हें प्राकृतिक उपहार के रूप में देखा जाता है, जिन्‍हें संरक्षित और पोषित करने की आवश्‍यकता है। मंत्री महोदय ने कहा कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को पर्यावरण के लिए कार्य करने के संदर्भ में प्रेरित किया जाना चाहिए और व्‍यक्‍तियों के छोटे योगदानों से एक वृहद कार्य पूरा किया जा सकता है।

ग्रीन गुड डीड्स पहल के सकारात्‍मक प्रभाव का वर्णन करते हुए डॉ. वर्धन ने कहा कि इस पहल को पूरे विश्‍व स्‍तर पर लागू किया जाना चाहिए। इस पहल को ब्रिक्‍स और अंतर्राष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालयों द्वारा सराहना मिली है।

संयुक्‍त राष्‍ट्र पर्यावरण के कार्यकारी निदेशक श्री एरिक सोल्‍हेम ने अपने संबोधन में ग्रीन गुड डीड्स के प्रति डॉ. हर्ष वर्धन के दृष्‍टिकोण को सराहते हुए कहा कि पर्यावरण पर परिचर्चा घर-घर में होनी चाहिए।    

                                                   

Monday, September 11, 2017

जीना इसी का नाम है.....

पीएयू के सुसाईड प्रिवेंशन आयोजन ने सिखाये ज़िंदगी के असली गुर 
लुधियाना: 16 सितंबर 2017: (कार्तिका सिंह)::
मन की दुनिया अजीब दुनिया है;
रंग कितने ही यह बदलती है। 
यह पंक्तियाँ इन दिनों की अख़बार में छपी खबरें देख कर पहले मन में उठीं और फिर जुबां पर आयी। कहीं बेटा बाप की हत्या कर रहा है और कहीं कोई बेटा मां को कत्ल कर रहा है। पैसे की पूजा करने वाले पूंजीवाद में यही सब हो सकता है। रिश्तों और जज़्बातों की कदर पूँजी प्रधान युग में कहां! 
हां वहीँ कभी कभी अच्छीे ख़बरें भी आती हैं। वो लोग भी रिश्ते बनाते और निभाते हैं जिनका किसी से खून का कोई रिश्ता नहीं होता। दुनिया के इन बदलते चेहरों को देख कर ही अहसास होता है मन की शक्ति का। मन को वश में किया तो पैरों तले ज़माना और अगर मन के पीछे हो लिए तो कुछेक हालतों को छोड़ कर ज़माने के पैरों तले हम। जब भी किसी समाचार पत्र में किसी की आत्महत्या की खबर छपी नज़र आती तो मन विचलित हो उठता। किसी का मन किसी का दिमाग किसी को मौत की राह पर कैसे ले जाता है। कदम कदम पर फैले शोषण के जाल ने ऐसे बहुत से हालात बनाये हैं। ज़रा सोचो उस मानसिक स्थिति को जब कोई मरने का फैसला करता है। ज़रा सोचो कैसे कोई खुद की जान ले सकता है? आखिर क्यों महसूस होता है इतना गम, इतना दर्द जो जान ले कर हो हटता है।  कारण बाहरी भी हैं लेकिन मन की भूमिका बहुत बड़ी होती है। तभी कहा जाता है शायद---मन के जीते जीत है--मन के हारे हार। 
आत्म हत्यायों की खबरों से दिल और दिमाग दोनों परेशान थे। उदासी बढ़ रही थी। समझ नहीं आ रही थी कि किसी को आत्महत्या से कैसे रोका जा सकता है। इसी उधेड़बुन में पता चला कि पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी एक प्रतियोगिता करवा रही है कि आत्म हत्यायों को कैसे रोका जाये? इसकी जानकारी मिलने पर मन में ख़ुशी की एक लहर उठी। काव्य रचना की मन में छुपी भूली बिसरी चाहत सक्रिय हुयी और एक पंजाबी काव्य रचना लिखी गयी।
उन दिनों पंचकूला में डेरा सच्चा सौदा के विवाद को लेकर हिंसक हालात  बने हुए थे। इंटरनेट बंद था। इसलिए लगा कि मेरा तो इस प्रतियोगिता में भाग लेना ही मुश्किल। कार्यालय में छुट्टी थी और इंटरनेट बंद। बहुत ही बेबसी की हालत बनी हुई थी। तभी एक अच्छी खबर आई। ज़रा सा हालात ठीक होते ही पीएयू ने इस प्रतियोगिता की अंतिम तारीख बढ़ाने का ऐलान कर दिया। कालेज के प्रोफेसरों ने होंसला दिया। बस मुझे तो जान में जान आयी। लगा मुझे अब अवश्य ही भाग लेना चाहिए। बहुत बार मन को बदला भी। फिर दिल के किसी कोने से आवाज़ आती शायद कंसोलेशन या एपरीसेशन पुरस्कार ही मिल जाये। बस एक दम से वो पंजाबी रचना प्रतियोगिता में भेज दी। अब बेसब्री से इंतज़ार था प्रतियोगिता के परिणाम का। 
मुझे याद है कि जिस दिन यह परिणाम आया उस दिन भी मेरे पापा हिमाचल में थे। मुझ से रहा नहीं गया और व्हाटसप पर अपनी ख़ुशी पापा को बताई।  पापा भी बहुत खुश हुए। 
जिस दिन इन परिणामों की घोषणा हुयी वो दिन तो मेरे लिए अविस्मरणीय ही बन गया। कालेज की मेरी प्रोफेसर और प्रिंसिपल दोनों ही मुझे आशीर्वाद देने के लिए विशेष तौर पर आये हुए थे। इससे मेरी ख़ुशी भी चौगुनी हुई और गर्व भी। उसी कार्यक्रम में जब मेरी कविता को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से स्टेज पर पढ़ा भी गया और स्क्रीन पर दिखाया भी गया तो मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुयी।  इससे ज़्यादा ख़ुशी उस जानकारी की मिली जो शायद मुझे वहीँ पर मिल ही नहीं सकती थी। पत्रकारिता विभाग के डाक्टर सरबजीत सिंह और होम साइंस विभाग की मैडम जतिंदर कौर गुलाटी ने तो कमाल की बातें बतायीं जिनमें कमाल का जादू था। ऐसा जादू जो आत्महत्या के लिए जा रहे इंसान को वापिस ज़िंदगी के जोश में ले आये। 
इसी तरह जानमाने शायर पद्मश्री डाक्टर सुरजीत पात्र साहिब ने बहुत ही सच्चा सुच्चा और वैज्ञानिक तथ्य बताया कि  जैसे कोई भी खतरनाक ज़हर अगर बहुत से पानी में मिला दिया जाए तो उसकी मार्क क्षमता तकरीबन समाप्त जैसी ही हो जाती है। उन्होंने समझाया कि इसी तरह अगर हम अपने दर्द को ही सबसे बड़ा दर्द समझ कर गले लगाएंगे तो वो खतरनाक ज़हर ही बन जायेगा जो ख़ुदकुशी की तरफ जाता है। लेकिन अगर दुनिया भर के गम को या दूसरों के गम को भी अपने ही गम इन शामिल कर लिया जाये तो अचानक ही अपना गम का सागर बहुत छोटी सी बूंद जैसा बन जाता है। उसकी मार्कक्षमता समाप्त हो जाती है। पात्र साहिब के इस हिसाब किताब को सुन कर याद आया वह गीत----
                                                              किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, 
                                                              किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
                                                              किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार-----
                                                              जीना इसी का नाम है-----
तब से मेरी अंतर्मन की जो आंख केवल अपना ही दर्द देख रही थी वही आंख अब दूसरों के दर्द को भी देखने लगी। कुछ ही दिनों में मुझे अपना दर्द--अपना गम जो बहुत बड़ा लगता था अब एक तरह से भूल जैसा ही गया था।
उसी कार्यक्रम में डाक्टर सुखपाल साहिब का पेपर भी पढ़ा गया था। कमाल की जानकारी दी गयी इस खोज पत्र में। खुदकुशियों का इतना विस्तृत विवरण शायद किसी अख़बार में नहीं आया। खुदकुशियों के इस अभियान से जुड़ कर ही पता चला कि  वास्तव में मामला है क्या? मैं कोशिश करूंगी कि  इस पर जल्द ही कोई नयी पोस्ट लिखी जाये। फिलहाल इतना ही कि अपना सुःख  और दूसरों का दुःख बाटना आ जाये तभी पता चलता है-- जीना इसी का नाम है...